लखनऊ। मध्य प्रदेश के जबलपुर स्थित पिसनहारी मढ़िया के नाम से मशहूर यह मंदिर अपने आप में कई प्राचीन आत्मकथाओं को जोड़े हुएहै। इस मंदिर के दर्शन मात्र से ही इसकी भव्यता और इसकी पौराणिक गाथा मन को छू लेती है। इसके चमत्कारी होने का भी एहसास होता है।
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इसकी गाथा कहती है की में पिसनहारी मढ़िया हूँ मेरा सृजन लगभग ६५० वर्ष पूर्व एक चक्की पीसनें वाली पुरवा निवासी एक वृद्धा माँ की श्रृद्धा व भावनाओ की कोख से हुआ है। जानते है आप उस वृद्धा माँ ने हाथ चक्की से आटा पीस-पीस कर मेरे सुजन हेतु जमीन के अन्दर एक मिट्टी के छड़ि में प्रतिदिन रासि एकत्रित की थी कहते हैं।
वह रासि चोरों केद्वारा चुरा ली गई लेकिन पुण्य भाव का अतिसयन केवल चोरों के सरदार नें वह रासि वापिस की बल्कि मेरे निर्माण कार्य में उन्होंने श्रम दान भी दिया और वह घड़ी आ गई। जब विक्रम संवत १५४२ में कमल एव स्वास्तिक चिन्ह युक्त भगवान पदम प्रभु एवं प्रभु सुपाश्वनाथंजी के जिनबिम्ब पघराये गए और मेरे शिखरों पर वृद्धा माँ की चक्की के दोनो पाट स्वर्णमय घट पर मणिमय कलस के रूप में स्थापित किये गये वे चक्की के पाट मेरे प्रांण हैं।
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जो पहाड़ी के जिन मंदिर के शिखरों पर देखे जा सकते हैं। मै वृद्धा माँ की श्रम-श्रृद्धा व त्याग की प्रतीक हैं। कालान्तर में १०५ क्षुल्लक श्री गणेश प्रसाद वर्णी जी वर्ष १६४० में तथा राष्ट्र संत जैनाचार्य १०८ श्री विद्या सागर महाराजजी वर्ष-१६८९-८२ मे मेरे प्रांगण में आए और फिर अनेक बार आए मेरे परिसर के कण-कण त्याग तपस्या की गौरव गाथा से गूंज उठे। मैं उसी वृद्धा माँ के सपनों का भारत विरूयात वंदनीय स्थल हैं। मुझे “श्री पिसनहारी मदिया क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। जिसके दर्शन पूजन वंदन से-भव भव के बंधन कर जाते हैं। आओ उसे वृद्धा माँ की श्रम-श्रध्दा को शीश नवाते हैं।