संगीत नाटक अकादमी में जनजातीय भागीदारी उत्सव
लखनऊ। जनजाति संस्कृति की विशेष पहचान केवल लोकनृत्य से नहीं है बल्कि उनसे जुड़े हर गतिविधि एवं क्रियाकलापों से है। जनजातीय समुदाय की सहज जीवन शैली ही इनकी विशेषता है। आज पूरा विश्व जनजातीय संस्कृति की ओर सहज ही आकर्षित हो रहा है।
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विवाह संस्कार एवं अंतिम संस्कार की अपनी खास विशेषता
उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी गोमतीनगर में चल रहे जनजातीय भागीदारी उत्सव के तहत आयोजित संस्कृति और विकास गोष्ठी कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पद्मश्री विद्या बिन्दु सिंह ने कहा कि इनके विवाह संस्कार एवं अंतिम संस्कार की अपनी खास विशेषता है। इनके यहां विवाह तय होने से पहले यह सुनिश्चित किया जाता है कि वर को कोई एक कला आती है अथवा नहीं,तभी विवाह होता है। इनके यहां मुखिया का अनुशासन पाया जाना इनकी खास विशेषता है।
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वीरता को खासा महत्व देते हैं
श्रीमती सिंह ने कहा कि पर्यावरण की चिंता करना इनकी खास विशेषता है। इनका भोला निष्क्षल मन सहज भाव से ही आध्यात्म से जुड़ा है। सहनशीलता प्रकृति की निर्भरता,मातृ शक्ति को महत्व इनकी अपनी संस्कृति से ही इन्हें मिला हुआ है। उन्होंने कहा कि देवी-देवताओं एवं प्रकृति के क्षेत्र में न केवल इनका भय बल्कि विश्वास दोनों ही शामिल हैं। जहां ये एक तरफ प्रकृति को नुकसान करने से डरते हैं वहीं भगवान से उम्मीद करते हैं कि वह दिव्य शक्ति उनकी प्राकृतिक आपदाओं से उनकी रक्षा करेगा। जनजाति समुदाय के लोग वीरता को खासा महत्व देते हैं।
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बिरसा मुण्डा को उनके बलिदान, साहस एवं शौर्य के कारण ही जनजाति के लोग उन्हें भगवान मानकर पूजते हैं। जनजाति लोग घुमक्कड़ जीवन शैली पसंद करते हैंं और प्रकृति के बीच में रहना चाहते हैं। भारत पर बहुत से बाहरी आक्रान्ताओं ने आक्रमण किया परन्तु जनजाति समुदाय के लोगों ने अपनी संस्कृति और सभ्यता को बनाये रखा। आज की नवीन संस्कृति औपचारिकता की तरफ बढ़ती जा रही है। जरूरत है कि हम अपनी संस्कृति की अनौपचारिकता को बनाये रखें।
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इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में डा0 मालिनी अवस्थी ने कहा कि कोरोना के बाद पूरे विश्व की सोच में बदलाव आया। आज लोग लौटकर पुनः प्रकृति की ओर आ रहे हैं। लोगों ने प्रकृति के महत्व को समझा और अनुभव किया कि प्रकृति हमें आक्सीजन, जल इत्यादि प्रदान करती है। आज सभी आध्यात्मिक जीवन और आध्यात्मिक सुख की ओर लौट रहे हैं। हावर्ड विश्वविद्यालय आज शोध कर रहा है कि कैसे सुख और शांति प्राप्त की जाए।
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सुखी एवं खुशहाल जीवन व्यतीत करते हैं
जनजाति समाज की जीवन शैली ही आध्यात्म है। प्रसन्नता व साझेदारी से कार्य किया जाए तो आध्यात्म को खोजना नहीं पड़ेगा। उन्होंने कहा कि सोनभद्र इलाके में रहने वाली खरवार जनजाति में कर्मा लोकनृत्य प्रसिद्ध है और यह उनकी जीवन शैली का अंग है। जनजाति लोग आज भी अपनी साक-सब्जी स्वयं उगाते हैं। कपड़ा भी स्वयं बुनते हैं और इस प्रकार वे सुखी एवं खुशहाल जीवन व्यतीत करते हैं।
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बेटी के जन्म को अच्छा माना जाता है
इस अवसर पर जनजाति समाज से दर्जा प्राप्त मंत्री ट्रसजेन्डर वेलफेयर बोर्ड देविका देवेन्द्र एस0 मंगलामुखी ने कहा कि संस्कृति का ही भाग है आध्यात्म। उन्होंने कहा कि सहरिया एवं गरसिया जनजाति राजस्थान, यूपी में प्रमुखता से पाई जाती है। उन्होंने कहा कि दोनों ही जनजातियों में बेटी के जन्म को अच्छा माना जाता है। दोनों ही जनजातियों में बेटी को ब्याहने के जगह पर दामाद को घरजमाई बनाने की परम्परा है। इस जनजाति के लोग अपने हाथोें पर सीता की रसोई इत्यादि गुदवाते है। यह उनका आध्यात्मिक पहलू है। मिशनरियों ने दलित व आदिवासी समाज पर ही अपना प्रभाव जमाना शुरू किया। परन्तु जनजाति लोगों ने अपनी संस्कृति और परम्परा को बनाये रखा।
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इस अवसर पर उपस्थित कई लोगों ने भी अपने विचार प्रस्तुत किये। कहा कि प्रकृति को बचाने व लोगों को प्रकृति का संदेश देने का कार्य जनजाति समाज के लोगों ने बखूबी किया। कर्म ही अध्यात्म रहा। जनजाति समाज के लोगों के संस्कार ऐसे रहे हैं कि अलग से अध्यात्म की जरूरत ही नहीं है। उनके द्वारा पेड़ पौधों की पूजा करना अध्यात्म और कर्म का ही हिस्सा है। जीवन की शुरूआत व अंत को चित्र, लोकनृत्य व गीत से समझा जा सकता है।
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वृक्षारोपण करेंगे तो हमें वातावरण अच्छा मिलेगा
प्रकृति को हम जैसा देते हैं प्रकृति भी हमें वैसा ही लौटाती है। यदि हम वृक्षारोपण करेंगे तो हमें वातावरण अच्छा मिलेगा और यदि हम विनाश करेंगे तो दैवीय आपदा जैसे- भूकम्प, सुनामी, भूस्खलन का सामना करना पड़ेगा। जनजाति लोगों ने इस बात को बड़े अच्छे से समझा है। आदिवासी सहज व सरल होते हैं। इसलिए प्रसन्न भी रहते हैं। प्रकृति से जुड़ाव ही उनकी प्रसन्नता का कारण भी है।इस गोष्ठी में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय प्रदर्शनकारी विभाग के पीएचडी शोधार्थी शिवकांत वर्मा,राहुल यादव,अश्विनी निहारे,रत्नेश साहू,बीएचयू के शोधार्थी बृजभान गोंड आदि शोधार्थियों ने हिस्सा लिया।
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बीज वक्तव्य तथा गोष्ठी का संचालन
प्रो.ओम प्रकाश भारती विभागाध्यक्ष प्रदर्शनकारी कला ,महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा ने किया। अन्य सहभागियों में दयालकृष्ण नाथ (असम), डॉ. सुधीर तिवारी (मप्र), कृष्णा मसगे (महाराष्ट्र) शामिल रहे।इस अवसर पर निदेशक अतुल द्विवेदी उत्तर प्रदेश लोक एवं जनजाति संस्कृति संस्थान, डॉ. प्रियंका वर्मा उप निदेशक समाज कल्याण विभाग, टीआरआई के नोडल ऑफिसर डॉ देवेंद्र सिंह आदि गणमान्य लोग मौजूद रहे।